कविता संग्रह >> हँसो हँसो जल्दी हँसो हँसो हँसो जल्दी हँसोरघुवीर सहाय
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रघुवीर सहाय विडम्बना के खोजी कवि हैं ! समाज और उसके ऊपर-नीचे खड़ी-पड़ी तमाम संरचनाओं, यथा राजनीति, शासन-प्रशासन और ताकत से बने या ताकत से बिगड़े अनेक मूर्त-अमूर्त फॉर्म्स को वे एक नई और असंलग्न निगाह से देखते हैं ! इस बहुपठित-बहुचर्चित संग्रह की अनेक कविताएँ, जिनमें अत्यन्त प्रसिद्ध कविता, ‘रामदास’ भी है उनकी उसी असंलग्नता के कारण इतनी भीषण बन पड़ी हैं ! वह असंलग्नता जो अपने समाज से बहुत गहरे, बेशर्त जुडाव के बाद किसी शुभाकांक्षी मन का हिस्सा बनती है ! वे इस समाज और उसको चला रही व्यवस्था को बदलने की इतनी गहरी आकांक्षा से बिंधे थे कि कविता भी उन्हें कवि न बनाकर एक चिंतित सामाजिक के रूप में प्रक्षेपित करती थी !
इसीलिए उनकी हर कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता के विस्तार की तरह नहीं, एक नई शाखा की तरह प्रकट होती थी ! यह संग्रह अपने संयोजन में स्वयं इसका साक्षी है कि हर कविता न तो शिल्प में, और न ही भाषा में अपनी किसी परंपरा का निर्माण करने की चिंता करती दिखती और न किसी और काव्य-परंपरा का निर्वाह करती ! हर बार उनका कवि समाज नामक दुख के इस विस्तृत पठार में एक नई जगह से उठता दिखाई देता है और पीड़ा के एक नए रंग, नए आकार का ध्वज लेकर !
इसीलिए उनकी हर कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता के विस्तार की तरह नहीं, एक नई शाखा की तरह प्रकट होती थी ! यह संग्रह अपने संयोजन में स्वयं इसका साक्षी है कि हर कविता न तो शिल्प में, और न ही भाषा में अपनी किसी परंपरा का निर्माण करने की चिंता करती दिखती और न किसी और काव्य-परंपरा का निर्वाह करती ! हर बार उनका कवि समाज नामक दुख के इस विस्तृत पठार में एक नई जगह से उठता दिखाई देता है और पीड़ा के एक नए रंग, नए आकार का ध्वज लेकर !
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